रिपोर्ट:लक्ष्मण बिष्ट 👹👹 : देवीधुरा:लोक-संस्कृति और सामूहिकता का प्रतीक है देवीधुरा का बगवाल मेला-शशांक पाण्डेय

लोक-संस्कृति और सामूहिकता का प्रतीक है देवीधुरा का बगवाल मेला-शशांक पाण्डेयउत्तराखंड का चंपावत ज़िला अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध है। इसी ज़िले की पाटी तहसील में स्थित देवीधुरा नामक स्थान एक अद्वितीय आस्था और परंपरा का केंद्र है। चारों ओर से देवदार, बुरांश और बांज के घने जंगलों से घिरा यह पवित्र स्थल केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पर्यटन और लोक-संस्कृति के लिहाज़ से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ स्थित माँ बाराही देवी का प्राचीन मंदिर और उससे जुड़ा बगवाल मेला उत्तराखंड की अनोखी पहचान बन चुका है।माँ बाराही धाम को कुमाऊँ अंचल के प्रमुख शक्ति पीठों में गिना जाता है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, यहाँ माँ बाराही की मूर्ति स्वयंभू है और यह स्थान सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र रहा है। माना जाता है कि माँ बाराही अपने भक्तों की रक्षा करती हैं और उनकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करती हैं।दूर-दराज़ के गाँवों और अन्य राज्यों से भी भक्त यहाँ दर्शन के लिए आते हैं।देवीधुरा का बगवाल मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि वीरता, साहस और सामूहिकता की अद्वितीय परंपरा है। यह मेला रक्षाबंधन के दिन आयोजित होता है और इसकी प्रसिद्धि देश-विदेश में फैली हुई है।
किंवदंती के अनुसार, प्राचीन समय में इस क्षेत्र में देवी को प्रसन्न करने के लिए मानव बलि दी जाती थी। एक बार एक विधवा के एकमात्र पुत्र की बारी आई, तो माँ बाराही ने स्वप्न में प्रकट होकर मानव बलि की प्रथा को समाप्त करने का आदेश दिया। इसके स्थान पर चार खाम —वालिग, चम्याल, गहरवाल और लमगड़िया ने यह निर्णय लिया कि बलि के स्थान पर बगवाल होगी। इसमें लोग पत्थरों से एक-दूसरे पर वार करेंगे, और जब तक एक व्यक्ति के रक्त के बराबर बूँदें न गिरें, तब तक यह आयोजन पूरा नहीं माना जाएगा। यह परंपरा आज भी जीवित है, हालांकि अब चोट और खतरे को कम करने के लिए पहले से ही तय सीमाओं और सावधानियों के तहत फल, और फूलों का इस्तेमाल ज़्यादा किया जाता है लेकिन पथर आदि का उपयोग भी खूब होता है।बगवाल मेला सुबह से ही उत्साह और रोमांच से भर जाता है। सबसे पहले मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना होती है, जिसके बाद माँ बाराही की जयकारों के साथ बगवाल का शुभारंभ होता है। चारों खाम अपने-अपने पारंपरिक वेशभूषा में आते हैं। लोग अपनी-अपनी ओर से जोश और शौर्य के साथ भाग लेते हैं। आज भले ही इसमें प्रयोग की जाने वाली चीज़ें बदल गई हों, लेकिन उत्साह, ऊर्जा और परंपरा की भावना वैसी ही है।बगवाल केवल एक खेल या अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह सामूहिकता और भाईचारे का भी प्रतीक है। इसमें भाग लेने वाले लोग किसी प्रकार की निजी दुश्मनी या कटुता नहीं रखते, बल्कि यह सब देवी की कृपा और पारंपरिक मान्यता के तहत किया जाता है। बगवाल समाप्त होने के बाद सभी लोग गले मिलते हैं और एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं।इस अवसर पर देवीधुरा का पूरा क्षेत्र रंग-बिरंगे परिधानों, पारंपरिक गीतों और नृत्यों से सराबोर हो जाता है। कुमाऊँनी लोकधुनों, ढोल-दमाऊँ की गूँज और माँ बाराही के जयकारे वातावरण में अद्भुत ऊर्जा भर देते हैं।बगवाल मेले की अनोखी परंपरा देखने के लिए न केवल उत्तराखंड बल्कि देश-विदेश से पर्यटक यहाँ आते हैं। यह आयोजन स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि मेले के दौरान स्थानीय लोग हस्तशिल्प, ऊनी वस्त्र, पारंपरिक भोजन और सांस्कृतिक वस्तुएँ बेचते हैं। इसके अलावा, आसपास के प्राकृतिक स्थल—अभयारण्य, बुरांश के जंगल, और ऐतिहासिक स्थान—भी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।देवीधुरा माँ बाराही धाम और बगवाल मेला आस्था, साहस और सांस्कृतिक एकता का अद्वितीय संगम है। यह परंपरा हमें यह सिखाती है कि कैसे एक समय की बलिदान-प्रधान प्रथा को सामूहिक उत्सव और साहसिक खेल में बदलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और प्रेरणादायी बनाया जा सकता है। हर वर्ष रक्षाबंधन पर देवीधुरा की वादियों में गूँजने वाले जयकारे न केवल स्थानीय संस्कृति की पहचान हैं, बल्कि उत्तराखंड की गौरवपूर्ण विरासत का जीवंत उदाहरण भी हैं।
(लेखक शशांक पाण्डेय जनपद चम्पावत निवासी एवं एक लोक संस्कृति प्रेमी है)