रिपोर्ट:लक्ष्मण बिष्ट : लोहाघाट:शादी-ब्याह में ‘छलिया बाजे’ की धूम—पुरानी धुनों पर थिरक उठा नया दौर, संस्कृति ने पहना नया शाही परिधान।
Laxman Singh Bisht
Sun, Nov 30, 2025
शादी-ब्याह में ‘छलिया बाजे’ की धूम—पुरानी धुनों पर थिरक उठा नया दौर, संस्कृति ने पहना नया शाही परिधान।
कभी शर्म, आज शान—देशभर में बढ़ रहा पहाड़ी लोकवाद्यों का क्रेज, समारोहों में लौट आई परंपराओं की असली चमक।
लोहाघाट। समय बदलता रहा, फैशन बदलते रहे, लेकिन अब जो बदलाव शादियों में देखने को मिल रहा है, वह बिल्कुल अलग और दिल को छू लेने वाला है। एक दौर था जब आधुनिक बैंड-बाजों के शोर में हमारी लोकपरंपराओं की मधुर धुनें कहीं खो सी गई थीं। विवाह समारोहों में पहाड़ी छलिया बाजा बुलाने को लोग अपनी ‘प्रतिष्ठा’ के खिलाफ समझते थे। पर आज हालात उलट चुके हैं—इतिहास खुद को दोहराते हुए फिर से लोकधुनों की गोद में लौट आया है।आज जब भी कोई बारात निकलती है, तो लकदक स्टाइलिश बैंड की जगह ढोल-दमाऊं, रणसिंघे और नरसिंगों की पारंपरिक गूंज ऐसी सरगर्मी पैदा करती है कि पूरा माहौल मानो पौराणिक उत्सव में बदल जाता है। पहाड़ ही क्यों, मैदानों में भी इन दिनों छलिया बाजे का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। दिल्ली, देहरादून, हल्द्वानी से लेकर लखनऊ तक—जहां भी पहाड़ी समुदाय की शादी है, वहां सबसे पहले पूछा जा रहा है—“छलिया बाजा बुक किया क्या?” लोककला के दमदार रंगकर्मी भैरव राय कहते हैं, “छलिया बाजा हमारी संस्कृति की नब्ज है। इसकी धुनें सिर्फ संगीत नहीं, हमारे पूर्वजों की आवाज, हमारी मिट्टी की महक हैं। इतने सालों बाद भी जब रणसिंघा गूंजता है, तो लगता है जैसे पहाड़ खुद धड़क रहा हो।” आज की युवा पीढ़ी, जिसे अक्सर आधुनिकता के रंग में रंगा हुआ माना जाता है, वही अपने विवाह में परंपरागत वाद्यों को प्राथमिकता देकर समाज को एक नई दिशा दिखा रही है। शादी के दिन दूल्हा जब छलिया बाजे की थाप पर नाचता है, तो बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक सबकी आंखों में चमक उतर आती है। यह नजारा सिर्फ एक बारात नहीं, बल्कि लोकसंस्कृति के भव्य पुनर्जागरण का प्रतीक बन जाता है। पहाड़ में तो स्थिति ऐसी हो गई है कि आधुनिक बैंड-बाजों की बुकिंग से ज्यादा ‘छलिया बाजे’ की मांग है। कुछ समूहों की बुकिंग तो महीनों पहले से फुल चल रही है। कई परिवार तो अपनी शादी की तारीख तक बाजे की उपलब्धता देखकर तय करने लगे हैं। शादियों में जहां एक तरफ लाखों का खर्च, विदेशी लाइवलाइट और दिखावे का शोर बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए लोक कला को सम्मान मिल रहा है—यह संतुलन बताता है कि समाज सिर्फ आधुनिकता का उपभोग नहीं कर रहा, बल्कि अपनी परंपराओं को भी नई जान दे रहा है। आज जब छलिया बाजे की थाप पर दुल्हा-दुल्हन के कदम थिरकते हैं, तो लगता है कि यह सिर्फ विवाह रस्म नहीं, बल्कि संस्कृति का उत्सव है—एक ऐसा उत्सव जो बताता है कि आधुनिकता की चकाचौंध में भी परंपरा की लौ अभी भी प्रज्वलित है… और पहले से कहीं ज्यादा चमकदार।